Wednesday, July 11, 2018

ll नई ग़ज़ल ll

ये और बात, दूर रहे मंज़िलों से हम,
बच कर चले हमेशा मगर रहबरों से हम.

मंज़िल की है तलब तो हमें साथ ले चलो,
वाकिफ़ हैं ख़ूब राह की बारीकियों से हम.

कुछ तो हमारे बीच कभी दूरियाँ भी हों,
तंग आ गए हैं रोज़ की, नज़दीकियों से हम.

गुज़रें हमारे घर की किसी रहगुज़र से वो,
परदें हटाएँ, देखें उन्हें खिड़कियों से हम.

जब भी कहा के- 'याद हमारी कहाँ उन्हें ?'
पकड़े गए हैं ठीक तभी, हिचकियों से हम.

जिनके परों पे सुबह की ख़ुशबू के रंग हैं,
बचपन उधार लाए हैं उन तितलियों से हम.

Aalok Shrivastav

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