Sunday, December 8, 2013

कितनी ख़ामोशियाँ सुनाते हैं

कितनी ख़ामोशियाँ सुनाते हैं
लोग जब बोलने पर आते हैं||

वो हमें रास्ता दिखाते हैं 

जिन्हे हम रास्ते पर लाते हैं||

ना घर छूटा, ना राम कहलाए

फिर भी हम रोज़ वनवास पाते हैं||

अपने अंदर भी एक रावण है

क्या उसे भी कभी जलाते हैं||

बूँद हूँ मॅ वज़ूद मेरा क्या

पर समंदर भी हममें डूब जाते हैं||

क्या है उस पार खुद ही देखेंगे

लोग कुछ का कुछ बताते हैं||


ड़ा. पंकज मिश्रा 

बहुत लोगों से हम अच्छे रहे

जिसमें पानी था वो बादल आग बरसाते रहे,
लोग नावाकिफ़ हवाओं की सियासत से रहे||

कैसा मेला था कि सारा शहर जिसमें खो गया,

घर,गली और मुहल्ले आज तक सुने रहे||

उस पराए शक्स से कैसा अजब रिस्ता रहा,

आँख नम उसकी हुई हम आज तक भीगे रहे||

तेज़ आँधियों के खिलाफ अपनी जगह कायम रहे,

या ये कहो की हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे||

एक सपना टूटने का दुख:रहा सदियों तलक,

अब ये लगता है बहुत लोगों से हम अच्छे रहे||



ड़ा. पंकज मिश्रा