Sunday, December 8, 2013

कितनी ख़ामोशियाँ सुनाते हैं

कितनी ख़ामोशियाँ सुनाते हैं
लोग जब बोलने पर आते हैं||

वो हमें रास्ता दिखाते हैं 

जिन्हे हम रास्ते पर लाते हैं||

ना घर छूटा, ना राम कहलाए

फिर भी हम रोज़ वनवास पाते हैं||

अपने अंदर भी एक रावण है

क्या उसे भी कभी जलाते हैं||

बूँद हूँ मॅ वज़ूद मेरा क्या

पर समंदर भी हममें डूब जाते हैं||

क्या है उस पार खुद ही देखेंगे

लोग कुछ का कुछ बताते हैं||


ड़ा. पंकज मिश्रा 

बहुत लोगों से हम अच्छे रहे

जिसमें पानी था वो बादल आग बरसाते रहे,
लोग नावाकिफ़ हवाओं की सियासत से रहे||

कैसा मेला था कि सारा शहर जिसमें खो गया,

घर,गली और मुहल्ले आज तक सुने रहे||

उस पराए शक्स से कैसा अजब रिस्ता रहा,

आँख नम उसकी हुई हम आज तक भीगे रहे||

तेज़ आँधियों के खिलाफ अपनी जगह कायम रहे,

या ये कहो की हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे||

एक सपना टूटने का दुख:रहा सदियों तलक,

अब ये लगता है बहुत लोगों से हम अच्छे रहे||



ड़ा. पंकज मिश्रा


Sunday, September 29, 2013

माँ !

                                                      माँ !
जब भी कभी मै सोचने बैठता हूँ तो ...........
बचपन के गलियारे से लेकर जवानी की इस भागती सड़को पर हमेशा तुझे साथ पाता हूँ .

सोचता हूँ की तू न होती तो क्या अपने पैरों पर चलना संभव था ???
सोचता हूँ की तुने हर मुश्किल पल को कितना आसन बनाया .

सोचता हूँ की तू न होती तो क्या ज़िन्दगी के सही मायनो को समझ पाता ???
ये भी नही भूला  हूँ जब छोटी - छोटी गलतियों पर बेलन और डंडे से पिटाई की थी .

सोंचता हूँ की तू न होती तो क्या धूप बरसात और आंधियों के साथ आज भी मै खड़ा होता ???
नही भूला  ओ रातें जब रात- रात भर जग कर मुझे सुलाया था .

सोंचता हूँ की आज भी तेरे पास आकर सारी परेशानियाँ ,तनाव और डर क्यों गायब हो जाता हैं ???
सोंच कर घबरा जाता हूँ कभी कभी की तुम बिन कभी जीना पड़ा तो क्या जी सकूँगा  ???

इस उत्तर की तलाश में भटक रहा हूँ 
और शायद अनंत काल तक भटकता रहूँ गा .

- पंकज मिश्र

Monday, July 8, 2013

मेरी दुआ

ज़िंदगी की धूप में जो अभी तक ज़ल रहे
या खुदा उनके सरों पर उम्र भर बादल रहे ||
क्या बतायें दूर जा कर भूल हमको जो गये
हम उन्ही की याद में उम्र भर पागल रहे ||
   



वो हूमें देकर गये सौगात आँसू की मगर
है दुआ,फिर भी उनकी आँख में काज़ल रहे ||
हम बहारों को भला भी देखते तो किस तरह
मेरे चारो ओर तो हरदम घने ज़ंगल रहे ||
वो गर्दिसो को भला भी झेलते तो किस तरह
जिनके सरों पर उमर भर रेशमीं आँचल रहे ||




- ड़ा. पंकज मिश्रा

Thursday, June 20, 2013

सिलसिला जख्म जख्म जारी है,

सिलसिला जख्म जख्म जारी है,

ये ज़मीं दूर तक हमारी है |

कूचे कुचे से नाता है मेरा,

ज़र्रे ज़र्रे से रिश्तेदारी है||

रेत के मकान ढह गये देखो,

बारिशों के खुलूष जारी है|

कोई गुज़ार के देखे दोस्तों,

जो ज़िन्दगी हमने गुजारी है||

डॉ.पंकज मिश्र 

Thursday, June 6, 2013

ज़वानी

आई इधर बहारें जवानी उधर गयी,
बर्बाद करने आयी थी बर्बाद कर गयी  |
जब वो चले थे छोड़ने तो उनपर नज़र गयी,
पलटे तो एक क़यामत सी गुज़र गयी ||
जब था मेरा शबाब तो मुझको नही था होश,
जब होश आगया तो ज़वानी गुज़र गयी |
ये बेवजह झुकी नही कमर मेरी ए सनम,
झुक झुक के खोजता हूँ ज़वानी किधर गयी ||

                                      ड़ा. पंकज मिश्रा

Tuesday, May 28, 2013

सुना है बहुत कुछ कहने लगे हैं लोग

सुना है बहुत कुछ कहने लगे हैं लोग ,
हमसे कहते हैं की अब बदलने लगे हैं लोग |
इन सुर्ख हवाओं में खुसबू है तेरी सांसो की,
इस मीठी ठंडक में एहसास है तेरे होने का,
फिर भी कहते हैं की बेवफा होने लगे हैं लोग,
एहसास होती है तन्हाइयां जब रातों को,
नज़र आता है वो मंज़र हमारी आँखों में,
फिर भी कहते हैं की भूलने लगे हैं लोग
सुना है बहुत कुछ कहने लगे हैं लोग ,
हमसे कहते हैं की अब बदलने लगे हैं लोग ||


                 डा. पंकज मिश्रा